तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आशंना हो जाईये, बन्दा परवार जाईये, अच्छा खफा हो जाइये.
राह में मिलिए कभी मुझसे तो अज़राह-ए-सितम, होंठ अपने काट कर फ़ौरन जुदा हो जाइये.जी में आता है की उस शोख-ए-तगाफुल केश से , अब न मिलिए फिर कभी और बेवफा हो जाइये.हाय रे बे-इख्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर, उस सरापा नाज़ से क्यूँ कर खफा हो जाइये.------: हशरत मोहानी
अभिव्यक्ति - मानवीय संवेदनाओं की ............. मैं गुजारना चाहता हूँ, जीवन की भागदौड़ और आपाधापी से, कुछ पल निकाल कर इन पंक्तियों के साथ. चंद अल्फाजों के साथ, जो किसी भी भाषा में हो सकते हैं, जो किसी भी शायर, किसी भी कवि, किसी भी साहित्यकार या किसी भी लेखक के हो सकते हैं. ये अल्फाजें शाएरी हो सकती हैं, ग़ज़ल हो सकती हैं, कविता हो सकती हैं, गद्द्य या कहानिया.
Saturday, September 10, 2011
तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आशंना हो जाईये - हशरत मोहानी
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