वही  ताज  है  वही  तख़्त  है  वही  ज़हर  है  वही  जाम  है 
ये  वही  खुदा  की  ज़मीन  है  ये  वही  बुतों  का  निजाम  है.
 
बड़े  शौक़  से  मेरा  घर  जला  कोई  आंच  ना  तुझपे  आयेगी 
ये  जुबां  किसी  ने  खरीद  ली  ये  कलम  किसी  का  गुलाम  है. 

मैं ये मानता हूँ मेरे दीये तेरी आँधियों ने बुझा दिए
मगर  इक  जुगनू  हवाओं  में  अभी  रौशनी  का  इमाम  है. 

-----: डॉ. बशीर बद्र