सियाहियों के बने हर्फ़ हर्फ़ धोते हैं,
ये लोग रात में कागज़ कहाँ भिगोतें हैं.
 
किसी की शाह में दहलीज़ पर दीया ना रखो,
किवाड़ सुखी हुई लकड़ियों के बने होतें हैं.
 
चिराग पानी में मौजों से पूछते होंगे,
वो कौन है जो कश्तियाँ डुबोते हैं.
 
कदीम कस्बों में क्या सुकून होता है,
थके थके हमारे बुज़ुर्ग सोते हैं.
 
चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं की ज़मीं,
ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं.
 
-----: डॉ. बशीर बद्र